गढ़मुक्तेश्वर का पौराणिक इतिहास
गढ़मुक्तेश्वर एक प्राचीन तीर्थ-स्थल है, जो गंगा के तट पर जनपद हापुड़ के अंतिम छोर पर स्थित है। यह लखनऊ दिल्ली राष्ट्रीय राजमार्ग-24 पर हापुड़ से मुरादाबाद की ओर 40 किलो मीटर की दूरी पर बसा है।
गढ़मुक्तेश्वर का उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में भी विद्यमान है। यह हिन्दुओं का अति प्राचीनतम एवं प्रमुख तीर्थ स्थल है। मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्री राम के पूर्वज महाराजा शिवि ने अपना चतुर्थ आश्रम गढ़मुक्तेश्वर में व्यतीत किया था और महाराजा शिवि ने भगवान परशुराम के द्वारा यहां शिव मंदिर की स्थापना कराई थी। उस समय गढ़मुक्तेश्वर खाण्डवी वन क्षेत्र के नाम से जाना जाता था। शिव मन्दिर की स्थापना और बल्लभ सम्प्रदाय का प्रमुख केंद्र होने केकारण इसका नाम शिवबल्लभपुर पड़ा, जिसका वर्णन शिव पुराण में मिलता है।
भगवान विष्णु के गण जय और विजय नारद के श्राप से मृत्यु लोक में गए थे, उन्होंने अपनी मुक्ति के लिए अनेक तीर्थस्थलों की यात्रा की। लेकिन कहीं भी शांति नहीं मिली अंत में दोनों गण जय और विजय शिवबल्लभपुर तीर्थ स्थल आये और भगवान शंकर की उपासना की, जिस पर भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिए, जिस पर दोनों गणों का उद्वार हुआ।
भगवान विष्णु के इन गणों की मुक्ति होने के कारण शिवबल्लभपुर नामक तीर्थ स्थल गणमुक्तेश्वर के नाम से जाना जाने लगा, जिसका अपभ्रशं गढ़मुक्तेश्वर है।
महाभारत काल में यह नगर जलमार्ग व्यापार का मुख्य केन्द्र था तथा हस्तिानपुर राज्य की राजधानी का एक हिस्सा हस्तिानपुर के उत्तर दिशा की ओर पुष्पावती था, जो आज ग्राम पूठ के नाम से जाना जाता है।उस समय पुष्पावती नाम का एक मनमोहन भव्य उद्यान था, जो हस्तिनापुर राज्य के शासकों की सैरगाह था।द्रोपदी अपने मन बहलाव के लिए फूलों की घाटी में प्रायः घूमने आया करती थी।
हस्तिनापुर से पुष्पावती के बीच 35 किलोमीटर तक खाण्डवी वन था। हस्तिनापुर से पुष्पावती तक जाने के लिए एक गुप्त मार्ग था, जिसके चिन्ह आज से कुछ वर्ष पहले तक मौजूद थे, जो अब समाप्त हो गये है। महाभारत से गढ़ गंगा कार्तिक मेले का प्रारम्भ हुआ है। इसीलिए गढ़ खादर के रेतीले मैदान में कार्तिक मास में लगने वाले इस मेले को अति प्राचीन मेलों में गिना जाता है।
पवित्र पावनी गंगा मैया के किनारे गढ़ खादर क्षेत्र के मैदान में लगने वाले इस गढ़ मेले का इतिहास भी लगभग पांच हजार वर्ष पुराना हैं। महाभारत के विनाशकारी युद्व के बाद धर्मराज युधिष्ठर तथा योगीराज श्रीकृष्ण के मन में युद्व विभीषिका तथा नरसंहार को देखकर भारी ग्लानि पैदा हो गयी थी। युद्ध में मारे गये असंख्य कुटम्बियों, बन्धुओं, एवं निर्दोष व्यक्तियों को आत्मा की शांति किस प्रकार मिले उनका मृत्यु संस्कार कैसे पूर्ण किया जाए, इस पर गंभीर चर्चा हुई, वेद उपनिषदों तथा पुराणों का अध्ययन किया गया।
भगवान कृष्ण की अध्यक्षता में सभी विद्वानों ने सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया कि खाण्डवी वन में भगवान परशुराम द्वारा स्थापित शिवबल्लभपुर नामक स्थान पर मुक्तेश्वर महादेव की पूजा एवं यज्ञोपरान्त पतित पावनी गंगा मैया में स्नान करके पिन्डदान करने से सभी संस्कार पूर्ण हो जायेंगे।
इस निर्णय का सभी विद्वानों ने एक मत से स्वागत किया। तत्पश्चात शुभ मुहूर्त निकाला गया, जिसमें कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को गौ पूजन करके गंगाजी में स्नान किया तथा एकादशी को गंगाजी के रेतीले मैदान में अपने सभी देवतुल्य पूर्वजों के उत्थान हेतु धार्मिक संस्कार करके उन्हें पिण्डदान किया। यही एकादशी देवोत्थान ;देव उठानद्ध कहलायी।
एकादशी से चतुर्दशी तक युद्ध में मारे गये सभी की आत्मा की शान्ति के लिए यज्ञ किया गया तथा चतुर्दशी की संध्या यज्ञ सम्पन्नोपरान्त स्वर्गीय आत्माओं को दीप दान कर श्रद्धांजलि अर्पित की गयी और अगले दिन पूर्णिमा को स्नान करके पूजा अर्चना की गई। इस प्रकार एक सप्ताह तक यह धार्मिक उत्सव सम्पन्न होने पर संतोष व्यक्त किया गया।
भगवान परशुराम ने यहाँ पाँच स्थानों पर शिवलिंग स्थापित किये थे। भगवान परशुराम द्वारा स्थापित शिवलिंग मुक्तेश्वर महादेव अर्थात नक्का कुआ के प्रांगण में तथा नुहूष कूप के निकट जंगल में स्थित है। जो झारखण्डेश्वर महादेव के नाम से दर्शनीय है। तीसरा शिवलिंग गाँव कल्याणपुर के निकट स्थापित है जो कल्याणेश्वर महादेव के नाम से प्रसिद्ध है। चौथा शिवलिंग दलियाना में लाल मन्दिर व पांचवा पुरा महादेव बागपत में स्थापित है।
राजा नुहुष जो किसी शाप वश गिरगिट की योनि में आ गये थे, धर्मराज युधिष्ठर के कहने पर यहीं पाप मुक्त हुये, जिन्होंने यहाँ यज्ञ कराया। यज्ञ शाला के निकट मुक्तेश्वर महादेव मन्दिर के प्रांगण में बाबड़ी बनवायी, जिसमें पतित पावनी गंगा का जल स्वतः ही आता है। यह बाबड़ी योनि नुहुष कूप, नक्का कुआ के नाम से प्रसिद्ध है।
परम्परागत कार्तिक मास मे लगने वाले इस विशाल मेले का प्रबन्ध जिला परिषद गाजियाबाद करता था, परन्तु गढ़मुक्तेश्वर के जिला हापुड़ में शामिल हो जाने के बाद से इस विशाल मेले का प्रबन्ध जिला परिषद हापुड़ करता है। गढ़ खादर के रेतीले मैदान में गंगा किनारे इस विशाल मेले के अवसर पर डेरों व तम्बुओं की अस्थायी नगरी बन जाती हैं इस अवसर पर देश के कोने-कोने से लाखों श्रद्धालु आते है। और इस अस्थायी तम्बुओं की नगरी रेतीले मैदान में रात्रि को रूक कर गंगा स्नान करते हैं। इस विशाल मेले का क्षेत्रफल लगभग 100 किमी का है। दूरदराज से आने वाले श्रद्धालु कलुष विनाशनी, पाप हरिणी, अमितमयी गंगाजी में स्नान करके अपने आपकों पापों से मुक्त मानते हैं। मेला आरम्भ होने से पूर्व श्रद्धालु भैंसा-बुग्गी ट्रैक्टर -ट्राली तथा अन्य वाहनों से पहुंचना शुरू हो जाते हैं। स्नानार्थियों की सुविधा के लिए यहां रेतीले मैदान में अस्थायी सड़कें, विद्युत, चिकित्सा व्यवस्था आदि की जाती है। तथा मनोरंजन के साधन, अस्थायी दुकाने, प्रशासनिक अधिकारियों के अतिरिक्त राजनैतिक दलों एवं सामाजिक संगठनों के शिविर भी इस विशाल मेले में लगाये जाते हैं। इस विशाल मेले के एक छोर पर घोडी, गधा, खच्चर की खरीद फरोख्त के लिए लगाये गये इस मेले को गधेड के नाम से भी जाना जाता है। भारत प्रसिद्ध इस मेले को मिनी कुम्भ के नाम से भी जाना जाता है।
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